रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर उनके साहस की कथा

रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर उनके साहस की कथा

परिचय

हर साल 18 जून को हम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि मनाते हैं, जो भारत की आज़ादी की लड़ाई की सबसे वीर और प्रेरणादायक नायिका थीं।

रानी लक्ष्मीबाई का साहस, नेतृत्व और देशभक्ति आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमिट प्रेरणा बन चुकी है। उनकी शहादत केवल एक वीरांगना की मृत्यु नहीं थी, बल्कि एक क्रांति की चेतना थी जो पूरे देश में फैल गई।

साहस की शुरुआत

लक्ष्मीबाई बचपन से ही असाधारण थीं। घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, धनुष-बाण जैसे युद्ध-कौशलों में निपुण मणिकर्णिका (बचपन का नाम) कभी भी डर या हार को स्वीकार नहीं करती थीं। यही साहस आगे चलकर उन्हें झांसी की रानी बनाकर इतिहास में अमर कर गया।

“मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी” – एक ऐतिहासिक घोषणा
जब अंग्रेजों ने ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ के तहत झांसी को हड़पने की कोशिश की, तो रानी ने डटकर विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा – “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी!”
यह वाक्य आज भी भारतीयों के दिलों में गर्व और साहस भर देता है।

युद्धभूमि में रानी लक्ष्मीबाई

 

रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर उनके साहस की कथा
1857 की क्रांति में जब देश के कोने-कोने में विद्रोह भड़क रहा था, रानी लक्ष्मीबाई ने भी झांसी को स्वतंत्र रखने के लिए सेना संगठित की। उन्होंने पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी युद्ध के लिए तैयार किया।

जब झांसी पर जनरल ह्यू रोज़ ने हमला किया, तो रानी ने अपने बेटे को पीठ से बांध कर तलवार उठाई और अंग्रेजों से मोर्चा लिया।

ग्वालियर और अंतिम युद्ध

झांसी से निकलने के बाद रानी कालपी और फिर ग्वालियर पहुँचीं। वहां उन्होंने तात्या टोपे और राव साहब के साथ मिलकर ग्वालियर का किला जीत लिया।
18 जून 1858 को कोटा की सराय में अंग्रेजों से अंतिम युद्ध हुआ। रानी ने बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की। उन्होंने अपने सैनिकों से कहा कि उनका शव अंग्रेजों के हाथ न लगे। इसी कारण, उनका अंतिम संस्कार वहीं पास के जंगल में किया गया।

रानी का साहस क्यों है आज भी प्रेरणा?

  • नारी शक्ति का प्रतीक: उन्होंने उस समय में युद्ध लड़ा जब महिलाओं को घर तक सीमित माना जाता था।
  • नेतृत्व क्षमता: अपनी छोटी सी सेना को संगठित करके अंग्रेजों को महीनों तक चुनौती दी।
  • देशभक्ति: उन्होंने अपना जीवन, सुख और पुत्र सब कुछ राष्ट्र को समर्पित कर दिया।

निष्कर्ष

रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर हमें केवल उन्हें याद ही नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके साहस को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। वे हमें यह सिखाती हैं कि परिस्थितियाँ कैसी भी हों, अगर आत्मबल हो तो असंभव को भी संभव किया जा सकता है।

आज जब हम उनकी पुण्यतिथि मना रहे हैं, तो एक बार फिर वही शब्द गूंजने चाहिए –
“ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी!”

 

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